Monday 1 November 2021

सुंदरता- भाग 3 : ट्रेन में क्या घटना हुई थी

अब उन की समझ में आया कि वह अनाम सा आकर्षण क्या था? अब वह समझे कि अपरिचय के बावजूद उन्हें कौन सा आकर्षण उस महिला की ओर खींच रहा था. यह आकर्षण सुंदरता का ही था. परंतु यह सुंदरता देह की नहीं, हृदय की सुंदरता थी, जो देह के माध्यम से ही फूट रही थी. वह इस आकर्षण को महसूस तो कर रहे थे, परंतु समझ नहीं पा रहे थे. अब जब समझ पाए हैं तो उन के मनमस्तिष्क की सारी धूल अपनेआप झड़ गई है. उन्हें लगा कि शीतलमंद सुगंधित पवन उन्हें छू कर बहने लगी है.

महिला ने आगे बताया,’मेरा नाम प्रमिला है. मैं मिडिल स्कूल में हैडमास्टर हूं. मेरे पति प्राइवेट कंपनी में दूसरे शहर में जौब करते हैं. बच्चों के साथ मैं पिताजी के पास ही रहती हूं. मेरे 2 बच्चे हैं, एक बेटा और एक बेटी.’उस ने आगे यह भी बताया”बेटा और बेटी अब काफी समझदार हो गए हैं और उम्र में छोटे होने के बावजूद अपनी देखभाल खुद करने के साथ ही घर के कामों में मेरी मदद भी करने लगे हैं. परंतु पिताजी अब असहाय हो गए हैं, क्योंकि वे कुछ दिनों पहले लकवाग्रस्त हो गए हैं. वे बोल नहीं पाते हैं और ना ही चलफिर सकते हैं. माताजी एक साल पहले ही हमारे बीच नहीं रहीं. अब मैं ही उन की देखभाल करती हूं. उन के दोनों पांव और उन का बायां हाथ पूरी तरह अपंग हो गए हैं. दाहिना हाथ बिलकुल दुरूस्त है. आंखें भी ठीक हैं, और दिलदिमाग भी चुस्त है. तो अब वे खूब पढ़ते हैं और खूब कविताएं लिखते हैं. उन्हें अपनी पसंद के कवियों और लेखकों की कविता और कहानियां बारबार पढ़ने में आनंद आता है.

‘मैं जब भी उन्हें उदास पाती हूं, तो उन की पसंद के कवियों व लेखकों की कविता और कहानियां उन्हें पढ़ कर सुनाती हूं. वे प्रसन्न हो जाते हैं. उन की प्रसन्नता के लिए मैं कवितावाचक और कथावाचक भी हो गई हूं.’सुशील चंद्र मंत्रमुग्ध हो कर प्रमिला की कहानी सुन रहे थे. प्रमिला ने आगे बताया, ‘पिताजी आप के बहुत बड़े फैन हैं. वे अकसर अपनी भावनाओं को कागज पर लिख कर मुझे बताते हैं कि ‘काश, मैं कभी सुशील चंद्रजी से मिल पाता.’

‘अगर वे चलफिर सकते, तो मैं उन्हें आप के पास आप के घर जरूर ले कर आती. परंतु वे तो अपंग हैं. कैसे लाऊं उन्हें आप के पास?’आप की कविताएं, कहानियां और लेख पढ़ कर अथवा सुन कर उन्हें ऐसा लगता है जैसे उन की आप से मुलाकात हो जाती है. मैं ने अनेक बार आप के लेख, कविताएं, कहानियां उन्हें पढ़ कर सुनाई है. इस तरह मैं भी आप की पाठक और फैन हो गई हूं. आप की रचनाएं बहुत ही उत्कृष्ट होती हैं. मैं तो पढ़तेपढ़ते मुग्ध हो जाती हूं.’’

अब सुशील चंद्र को भी लगने लगा कि प्रमिला से उन का परिचय बहुत गहरा है. प्रमिला की सहजता, सरलता, सादगी के साथ संवेदनशीलता के प्रवाह में अब वे स्वयं भी प्रमिला से भावनात्मक रूप से जुड़ते जा रहे थे.

पिताजी की अभिलाषा, उन की अपंगता और अपनी असहायता बतातेबताते प्रमिला भावुक हो उठी. उस ने अपना आंचल फैला कर मानो भीख मांगते हुए कहा, ‘क्या आप मेरा यह आंचल खुशी से भर पाएंगे? क्या आप मेरे पिताजी की अभिलाषा पूरी कर पाएंगे?’उत्तर में सुशील चंद्र की आंखों से गंगायमुना बहने लगी. यह देख प्रेमिला भी द्रवित हो गई. उस ने पूछा, ‘सर, आप की आंखों में आंसू…?’

‘हां, आंसू ही हैं,’ वे बोले, ‘परंतु, ये आंसू दुख के नहीं, खुशी के हैं. आज मुझे मेरी बेटी भी याद आ रही है और पत्नी भी. अगर उन दोनों में से कोई भी आज होती तो वह भी मेरे लिए और मेरी छोटीछोटी खुुशी के लिए ऐसी ही ललक रखती.’

अब आंखें छलछला आने की बारी प्रमिला की थी. सुशील चंद्र ने अपनी आंखों से आंसू पोंछे और संयत हो कर बोले, ‘हालांकि मेरी बहू भी मेरी बेटी जैसी ही है.”बेटी जैसी…’ अचानक प्रमिला की भाव मुद्रा कठोर और तनावग्रस्त हो गई. उस ने इतनी कठोरता से यह प्रश्न किया कि वे सहम से गए.

प्रमिला बोली, ‘आप को अपनी बहू, बेटी जैसी क्यों लगती है?… बेटी ही क्यों नहीं लगती है.’कवि या कथाकार होने के नाते सुशील चंद्र शब्द की महत्ता को समझते थे, परंतु आज उन्हें यह अहसास पहली बार हुआ कि एक छोटा सा शब्द किसी को कितना गहरा आघात पहुंचा सकता है.

एक छोटे से शब्द के पीछे शायद किसी के जीवन की बहुत दर्दभरी कहानी छुपी हो सकती है. वह कुछ नहीं बोल पाए. फटीफटी आंखों से बस प्रमिला को देखते भर रह गए. प्रमिला की आंखें डबडबा रही थीं. वह रुंधे हुए कंठ से बोलती है, ‘मेरे जन्म के तुरंत बाद ही मेरे पिता का निधन हो गया था. कुछ दिन बाद मां का भी निधन हो गया. मुझे मेेेरे नानानानी ने पाला. शादी के बाद सासससुर को पा कर मुझे लगा था कि मुझे मेरे मातापिता मिल गए हैं. मेरी हमेशा यही कोशिश रही कि मेरे ससुर मेरे पिताजी और मेरी सास मेरी मां बनें… और मैं उन की बेटी बन जाऊं. यह टीस मुझे दिनरात कचोटती है कि मैं बेटी जैसी तो बन गई, मगर मैं पूरी तरह से बेटी नहीं बन पाई.’

इस के आगे प्रमिला कुछ न बोल पाई, क्योंकि उस का गला भर आया था.सुशील चंद्र बोले, ‘प्रमिला, मुझे अपना मोबाइल नंबर दो और अपने घर का पता भी दो. मैं इसी रविवार को आ रहा हूं तुम्हारे घर पर… तुम्हारे पिताजी से मिलने.”इतना सुनते ही प्रमिला जैसे नींद से जागी. स्टेशन भी आ गया था. सभी यात्री उतरने लगे थे. प्रमिला ने झट से कागज के एक टुकड़े पर फोन नंबर व घर का पता लिखा और सुशील चंद्र को देते हुए बोली, ‘बड़ी मेहरबानी होगी आप की. मैं प्रतीक्षा करूंगी.’

रविवार को जब सुशील चंद्र प्रमिला के घर पहुंचे तो देखा कि उन के पिताजी का बिस्तर बैठक कक्ष में ही लगा हुआ था. लगभग 85 वर्ष की उम्र के कृशकाय देह वाले प्रमिला के पिता पलंग पर लेटे हुए थे. सुशील चंद्र ने अभिवादन में अपने हाथ जोड़ दिए. पिताजी अस्पष्ट सी आवाज में फुसफुसाए, ‘मां…’प्रमिला बोली, ‘पिता जान गए हैं कि आप आ गए हैं. वे खुशी से बावले हुए जा रहे हैं.’

सुशील चंद्र अभिवादन की मुद्रा में ही पलंग के नजदीक पहुंचे तो पिताजी ने भी सम्मान में अपना दाहिना हाथ उठा कर अभिवादन किया.सुशील चंद्र ने देखा कि प्रमिला के पिताजी की आंखें खुशी से चमक उठी हैं. पिताजी फिर फुसफुसाए, ‘मां…’

प्रमिला ने सुशील चंद्रजी को बैठने के लिए कुरसी दी. फिर झट से उस कृशकाय देह को अपने अंक में कुछ ऐसे भर कर जैसे मां अपने नन्हे शिशु को अपने अंक में समेट कर उठाती है, उठाया. उठा कर पलंग की पाटी से लगे गाढ़ी के बने तकिया के सहारे उन्हें बिठाया. अगलबगल भी तकिए लगा कर उन्हें सहारा दिया. फिर वह बताने लगी, ‘यह पलंग से सटी विशेष मेज है, जिस पर कागज बिछा कर पिताजी कविताएं लिखते हैं. यह उन की पसंद की साहित्यिक पत्रिकाएं हैं, जिन्हें वे पढ़ते हैं. और यह रही आप की प्रकाशित कविताकहानियों की किताबें, जिन्हें देख कर और पढ़ कर वे पुलकित होते रहते हैं.’

सुशील चंद्र ने महसूस किया कि उन के आने से वे सचमुच पुलकित हो रहे हैं. कृतज्ञता से भर गए हैं. पिताजी एक बार फिर फुसफुसाए, ‘मां.’प्रमिला बोली, ‘बस, अब एक यही शब्द ‘‘मां” ही उन के मुंह से निकल पाता है. परंतु इसी एक शब्द के आरोहअवरोह और चेहरे की भावभंगिमा से मैं समझ लेती हूं कि वे क्या कह रहे हैं. अभी वे कह रहे हैं कि आप अतिथि हैं हमारे… जलपान कराऊं मैं आप को…’

फिर सुशील चंद्रजी के हाथ में डायरी देते हुए वह बोली, ‘इस में पिताजी की कुछ कविताएं हैं. आप इन्हें देखिएगा, तब तक मैं आप के लिए चायनाश्ता तैयार कर के लाती हूं.’उन्होंने डायरी हाथ में ली और कविताएं पढ़ने लगे. परंतु डायरी की कविताओं से ज्यादा उन का ध्यान प्रमिला के व्यक्तित्व को पढ़ने में डूबा हुआ था. प्रमिला जिन्हें जीवनभर अपना पिता मानती रही और आज भी पिताजी ही संबोधित करती है, वह तो नन्हा सा मासूम सा शिशु बन चुका है. 85 वर्ष का एक ऐसा शिशु, जो अपनी हर बात के लिए अपनी मां पर निर्भर है. और प्रमिला जीवनभर जिन की बेटी बन पाने के लिए आतुर रही, आज उन्हीं की मां बन गई है. हां, मां ही तो है, जो अपने शिशु की मौन भाषा को समझ पाती है. बिना शब्द, बिना भाषा मां ही तो संवाद कर पाती है अपने शिशु से. और यह कोई इत्तेफाक नहीं है कि अब वे एक ही शब्द फुसफुसा पाते है- ‘मां’. दरअसल, वे जिसे जीवनभर बेटी जैसा तो मानते रहे, पर पूरी तरह बेटी नहीं मान पाए, उन की वही बहू अब उन की ‘मां’ बन चुकी है. और निर्मल हृदय बालक की तरह उन्हें अपनी इस मां की गोद में सुकून मिलने लगा है.

सुशील चंद्र सोच रहे थे कि मां से बढ़ कर सुंदर इस दुनिया में कोई हो नहीं सकता. अब उन्हें समझ आया कि ट्रेन में पहली बार ही देखने पर भी प्रमिला की जिस सुंदरता ने उन को आकर्षित किया था, वह एक मां के हृदय की सुंदरता थी. मां के हृदय की यह सुंदरता ही प्रमिला के रोएंरोएं से प्रगट हो रही थी.लज्जा नारी का आभूषण होता है. मगर मातृत्व तो वह हीरा है, जिस से नारी का एकएक अंग दमक उठता है. सुंदर नारी और भी सुंदर लगने लगती है, जब उस के हृदय में ममता का संचार होता है. जब उस की भावनाओं में करुणा का श्रृंगार होता है. विचारों में पवित्रता का संस्कार होता है.

फिर उन्होंने मृत्युशैय्या पर लेटे 85 वर्षीय वृद्ध शिशु की डायरी से कविताएं पढ़ी. खूब बातें कीं और जब विदा हुए तो प्रमिला से बोले, ‘आज मैं तुम्हारी भावनाओं से अभिभूत हूं. तुम इस घर में बहू बन कर आई. बेटी बन कर रही. और मां बन कर तुम ने इस पूरे घर को मंदिर बना दिया.’और सुनो, आज प्ररेणा बन कर इस सोए हुए कवि के लेखक की चेतना को भी तुम ने जगा दिया है. कुछ दिनों से मेरे आस्था और विश्वास की जमीन डांवांडोल हो रही थी. जीवन की ऊष्मा कम होती जा रही थी. आज तुम्हारी भावनाओं से जुड़ कर मेरे हृदय में फिर से स्फूर्ति का संचार हो रहा है.’

प्रमिला बोली, ‘मैं तो स्वयं आप से मिल कर अपनी चेतना में स्फूर्ति का अनुभव कर रही हूं.’सुशील चंद्र बोले, ‘अगर सचमुच ऐसा है तो और भी अच्छा है. मेरा मन तुम्हारे साथ एक ऐसा रिश्ता जोड़ने का हो रहा है, जो बहन, बेटी, मां और पत्नी के रिश्ते से भी एक कदम आगे बढ़ कर है. मैं तुम्हें अपना मित्र बनाना चाहता हूं. मुझे पूरा भरोसा है कि तुम स्त्रीपुरुष की पवित्र मित्रता को भी एक नया आयाम दे सकोगी.’

प्रमिला बोली, ‘सर, मित्रता तो बराबरी वालों में होती है. मैं न तो उम्र में आप के बराबर हूं, न ही पद और कद में आप के बराबर हूं.’’सुशील चंद्र बोले, “उम्र में भले ही तुम मुझ से छोटी हो, परंतु विचार, भावनाओं और संवेदनशीलता में मुझ से बड़ी हो. इसी से सोचता हूं कि तुम्हारी भावनाओं को अपनी भावनाओं के साथ जोड़ कर मैं अनुभव के उस आकाश तक पहुंच सकूंगा, जहां से मेरे साहित्य सृजन न जाने कितने चांद और सितारे उतर आएंगे.”

प्रमिला कुछ नहीं बोली, पर उस की आंखों ने बहुतकुछ बोल दिया, जो सुशील चंद्र ने आंखों ही आंखों में बांच लिया.सुशील चंद्र और प्रमिला की मित्रता धीरेधीरे बढ़ती गई. वे दोनों एकदूसरे के साथ ऐसे घुलमिल गए, जैसे दूध में मिश्री घुलमिल गई हो. अपने पिता ससुर के निधन के बाद तो प्रमिला को लगता सुशीलचंद्रजी… होती गई.शीघ्र ही सुशील चंद्र का ‘‘सुंदरता’’ शीर्षक नाम का नया उपन्यास प्रकाशित हुआ. उपन्यास प्रमिला को समर्पित करते हुए उन्होंने लिखा,

समर्पित अपनी अंतरंग मित प्रमिला के अध्यात्मिक सौंदर्य को,जिस ने मुझे फिर से कलम उठाने को

प्रेरित किया. सुशील चंद्र उपन्यास प्रकाशित होने के बाद ये बात भी तेजी से सार्वजनिक हो गई कि उपन्यास की नायिका के रूप में ‘‘बूढ़े बच्चे की मां के’’ जिस किरदार के अलौकिक सौंदर्य पर उपन्यास का तानाबाना बुना गया है, वह किरदार वास्तव में प्रमिला का किरदार ही है. कुछ लोग उन दोनों की अंतरंगता को ले कर कटाक्ष भी करने लगे थे. दोनों के रिश्तों पर संदेह करती हुई कुछ अफवाहें कानाफूंसी के कंधों पर सवार हो कर प्रमिला के पति विनय के कानों तक भी पहुंच गईं. मगर विनय सुलझा हुआ इनसान था. उस की दृष्टि पैनी और पारदर्शी थी.

प्रमिला ने जब अपने पति विनय का पहली बार सुशील चंद्र से परिचय कराया तो कहा, ‘ये हैं सुशील चंद्रजी… मेरे अंतरंग मित्र.’प्रमिला के पति विनय ने कहा, ‘आप की मित्रता की सुंदरता और पवित्रता को मैं महसूस कर रहा हूं. अगर यह मित्रता न होती तो उपन्यास ‘सुंदरता’ की नायिका की अलौकिक छवि को आप इतनी खूबसूरती से चित्रित नहीं कर पाते.’

प्रमिला ने आश्चर्य के साथ अपने पति की ओर देखा.विनय ने कहा, ‘हां, मैं ने यह उपन्यास पढ़ा है. इस के एकएक शब्द ने मुझे आल्हादित किया है. मुझे गर्व है कि सुशील चंद्रजी जैसे बड़े लेखक मेरी पत्नी को अपना अंतरंग मित्र मानते हैं. मित्रता आप दोनों को मुबारक हो.’फिर विनय ने सुशील चंद्रजी की ओर मुड़ कर कहा, ‘मेरे लिए तो आप बहुत बड़े लेखक और कवि हैं. और मैं सदा आप को प्रणाम ही करता रहूंगा.’

इतना कहते हुए विनय ने जब सुशील चंद्रजी के पैर छुए तो उन्होंने आशीर्वाद देते हुए विनय को अपने गले से लगा लिया.

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अब उन की समझ में आया कि वह अनाम सा आकर्षण क्या था? अब वह समझे कि अपरिचय के बावजूद उन्हें कौन सा आकर्षण उस महिला की ओर खींच रहा था. यह आकर्षण सुंदरता का ही था. परंतु यह सुंदरता देह की नहीं, हृदय की सुंदरता थी, जो देह के माध्यम से ही फूट रही थी. वह इस आकर्षण को महसूस तो कर रहे थे, परंतु समझ नहीं पा रहे थे. अब जब समझ पाए हैं तो उन के मनमस्तिष्क की सारी धूल अपनेआप झड़ गई है. उन्हें लगा कि शीतलमंद सुगंधित पवन उन्हें छू कर बहने लगी है.

महिला ने आगे बताया,’मेरा नाम प्रमिला है. मैं मिडिल स्कूल में हैडमास्टर हूं. मेरे पति प्राइवेट कंपनी में दूसरे शहर में जौब करते हैं. बच्चों के साथ मैं पिताजी के पास ही रहती हूं. मेरे 2 बच्चे हैं, एक बेटा और एक बेटी.’उस ने आगे यह भी बताया”बेटा और बेटी अब काफी समझदार हो गए हैं और उम्र में छोटे होने के बावजूद अपनी देखभाल खुद करने के साथ ही घर के कामों में मेरी मदद भी करने लगे हैं. परंतु पिताजी अब असहाय हो गए हैं, क्योंकि वे कुछ दिनों पहले लकवाग्रस्त हो गए हैं. वे बोल नहीं पाते हैं और ना ही चलफिर सकते हैं. माताजी एक साल पहले ही हमारे बीच नहीं रहीं. अब मैं ही उन की देखभाल करती हूं. उन के दोनों पांव और उन का बायां हाथ पूरी तरह अपंग हो गए हैं. दाहिना हाथ बिलकुल दुरूस्त है. आंखें भी ठीक हैं, और दिलदिमाग भी चुस्त है. तो अब वे खूब पढ़ते हैं और खूब कविताएं लिखते हैं. उन्हें अपनी पसंद के कवियों और लेखकों की कविता और कहानियां बारबार पढ़ने में आनंद आता है.

‘मैं जब भी उन्हें उदास पाती हूं, तो उन की पसंद के कवियों व लेखकों की कविता और कहानियां उन्हें पढ़ कर सुनाती हूं. वे प्रसन्न हो जाते हैं. उन की प्रसन्नता के लिए मैं कवितावाचक और कथावाचक भी हो गई हूं.’सुशील चंद्र मंत्रमुग्ध हो कर प्रमिला की कहानी सुन रहे थे. प्रमिला ने आगे बताया, ‘पिताजी आप के बहुत बड़े फैन हैं. वे अकसर अपनी भावनाओं को कागज पर लिख कर मुझे बताते हैं कि ‘काश, मैं कभी सुशील चंद्रजी से मिल पाता.’

‘अगर वे चलफिर सकते, तो मैं उन्हें आप के पास आप के घर जरूर ले कर आती. परंतु वे तो अपंग हैं. कैसे लाऊं उन्हें आप के पास?’आप की कविताएं, कहानियां और लेख पढ़ कर अथवा सुन कर उन्हें ऐसा लगता है जैसे उन की आप से मुलाकात हो जाती है. मैं ने अनेक बार आप के लेख, कविताएं, कहानियां उन्हें पढ़ कर सुनाई है. इस तरह मैं भी आप की पाठक और फैन हो गई हूं. आप की रचनाएं बहुत ही उत्कृष्ट होती हैं. मैं तो पढ़तेपढ़ते मुग्ध हो जाती हूं.’’

अब सुशील चंद्र को भी लगने लगा कि प्रमिला से उन का परिचय बहुत गहरा है. प्रमिला की सहजता, सरलता, सादगी के साथ संवेदनशीलता के प्रवाह में अब वे स्वयं भी प्रमिला से भावनात्मक रूप से जुड़ते जा रहे थे.

पिताजी की अभिलाषा, उन की अपंगता और अपनी असहायता बतातेबताते प्रमिला भावुक हो उठी. उस ने अपना आंचल फैला कर मानो भीख मांगते हुए कहा, ‘क्या आप मेरा यह आंचल खुशी से भर पाएंगे? क्या आप मेरे पिताजी की अभिलाषा पूरी कर पाएंगे?’उत्तर में सुशील चंद्र की आंखों से गंगायमुना बहने लगी. यह देख प्रेमिला भी द्रवित हो गई. उस ने पूछा, ‘सर, आप की आंखों में आंसू…?’

‘हां, आंसू ही हैं,’ वे बोले, ‘परंतु, ये आंसू दुख के नहीं, खुशी के हैं. आज मुझे मेरी बेटी भी याद आ रही है और पत्नी भी. अगर उन दोनों में से कोई भी आज होती तो वह भी मेरे लिए और मेरी छोटीछोटी खुुशी के लिए ऐसी ही ललक रखती.’

अब आंखें छलछला आने की बारी प्रमिला की थी. सुशील चंद्र ने अपनी आंखों से आंसू पोंछे और संयत हो कर बोले, ‘हालांकि मेरी बहू भी मेरी बेटी जैसी ही है.”बेटी जैसी…’ अचानक प्रमिला की भाव मुद्रा कठोर और तनावग्रस्त हो गई. उस ने इतनी कठोरता से यह प्रश्न किया कि वे सहम से गए.

प्रमिला बोली, ‘आप को अपनी बहू, बेटी जैसी क्यों लगती है?… बेटी ही क्यों नहीं लगती है.’कवि या कथाकार होने के नाते सुशील चंद्र शब्द की महत्ता को समझते थे, परंतु आज उन्हें यह अहसास पहली बार हुआ कि एक छोटा सा शब्द किसी को कितना गहरा आघात पहुंचा सकता है.

एक छोटे से शब्द के पीछे शायद किसी के जीवन की बहुत दर्दभरी कहानी छुपी हो सकती है. वह कुछ नहीं बोल पाए. फटीफटी आंखों से बस प्रमिला को देखते भर रह गए. प्रमिला की आंखें डबडबा रही थीं. वह रुंधे हुए कंठ से बोलती है, ‘मेरे जन्म के तुरंत बाद ही मेरे पिता का निधन हो गया था. कुछ दिन बाद मां का भी निधन हो गया. मुझे मेेेरे नानानानी ने पाला. शादी के बाद सासससुर को पा कर मुझे लगा था कि मुझे मेरे मातापिता मिल गए हैं. मेरी हमेशा यही कोशिश रही कि मेरे ससुर मेरे पिताजी और मेरी सास मेरी मां बनें… और मैं उन की बेटी बन जाऊं. यह टीस मुझे दिनरात कचोटती है कि मैं बेटी जैसी तो बन गई, मगर मैं पूरी तरह से बेटी नहीं बन पाई.’

इस के आगे प्रमिला कुछ न बोल पाई, क्योंकि उस का गला भर आया था.सुशील चंद्र बोले, ‘प्रमिला, मुझे अपना मोबाइल नंबर दो और अपने घर का पता भी दो. मैं इसी रविवार को आ रहा हूं तुम्हारे घर पर… तुम्हारे पिताजी से मिलने.”इतना सुनते ही प्रमिला जैसे नींद से जागी. स्टेशन भी आ गया था. सभी यात्री उतरने लगे थे. प्रमिला ने झट से कागज के एक टुकड़े पर फोन नंबर व घर का पता लिखा और सुशील चंद्र को देते हुए बोली, ‘बड़ी मेहरबानी होगी आप की. मैं प्रतीक्षा करूंगी.’

रविवार को जब सुशील चंद्र प्रमिला के घर पहुंचे तो देखा कि उन के पिताजी का बिस्तर बैठक कक्ष में ही लगा हुआ था. लगभग 85 वर्ष की उम्र के कृशकाय देह वाले प्रमिला के पिता पलंग पर लेटे हुए थे. सुशील चंद्र ने अभिवादन में अपने हाथ जोड़ दिए. पिताजी अस्पष्ट सी आवाज में फुसफुसाए, ‘मां…’प्रमिला बोली, ‘पिता जान गए हैं कि आप आ गए हैं. वे खुशी से बावले हुए जा रहे हैं.’

सुशील चंद्र अभिवादन की मुद्रा में ही पलंग के नजदीक पहुंचे तो पिताजी ने भी सम्मान में अपना दाहिना हाथ उठा कर अभिवादन किया.सुशील चंद्र ने देखा कि प्रमिला के पिताजी की आंखें खुशी से चमक उठी हैं. पिताजी फिर फुसफुसाए, ‘मां…’

प्रमिला ने सुशील चंद्रजी को बैठने के लिए कुरसी दी. फिर झट से उस कृशकाय देह को अपने अंक में कुछ ऐसे भर कर जैसे मां अपने नन्हे शिशु को अपने अंक में समेट कर उठाती है, उठाया. उठा कर पलंग की पाटी से लगे गाढ़ी के बने तकिया के सहारे उन्हें बिठाया. अगलबगल भी तकिए लगा कर उन्हें सहारा दिया. फिर वह बताने लगी, ‘यह पलंग से सटी विशेष मेज है, जिस पर कागज बिछा कर पिताजी कविताएं लिखते हैं. यह उन की पसंद की साहित्यिक पत्रिकाएं हैं, जिन्हें वे पढ़ते हैं. और यह रही आप की प्रकाशित कविताकहानियों की किताबें, जिन्हें देख कर और पढ़ कर वे पुलकित होते रहते हैं.’

सुशील चंद्र ने महसूस किया कि उन के आने से वे सचमुच पुलकित हो रहे हैं. कृतज्ञता से भर गए हैं. पिताजी एक बार फिर फुसफुसाए, ‘मां.’प्रमिला बोली, ‘बस, अब एक यही शब्द ‘‘मां” ही उन के मुंह से निकल पाता है. परंतु इसी एक शब्द के आरोहअवरोह और चेहरे की भावभंगिमा से मैं समझ लेती हूं कि वे क्या कह रहे हैं. अभी वे कह रहे हैं कि आप अतिथि हैं हमारे… जलपान कराऊं मैं आप को…’

फिर सुशील चंद्रजी के हाथ में डायरी देते हुए वह बोली, ‘इस में पिताजी की कुछ कविताएं हैं. आप इन्हें देखिएगा, तब तक मैं आप के लिए चायनाश्ता तैयार कर के लाती हूं.’उन्होंने डायरी हाथ में ली और कविताएं पढ़ने लगे. परंतु डायरी की कविताओं से ज्यादा उन का ध्यान प्रमिला के व्यक्तित्व को पढ़ने में डूबा हुआ था. प्रमिला जिन्हें जीवनभर अपना पिता मानती रही और आज भी पिताजी ही संबोधित करती है, वह तो नन्हा सा मासूम सा शिशु बन चुका है. 85 वर्ष का एक ऐसा शिशु, जो अपनी हर बात के लिए अपनी मां पर निर्भर है. और प्रमिला जीवनभर जिन की बेटी बन पाने के लिए आतुर रही, आज उन्हीं की मां बन गई है. हां, मां ही तो है, जो अपने शिशु की मौन भाषा को समझ पाती है. बिना शब्द, बिना भाषा मां ही तो संवाद कर पाती है अपने शिशु से. और यह कोई इत्तेफाक नहीं है कि अब वे एक ही शब्द फुसफुसा पाते है- ‘मां’. दरअसल, वे जिसे जीवनभर बेटी जैसा तो मानते रहे, पर पूरी तरह बेटी नहीं मान पाए, उन की वही बहू अब उन की ‘मां’ बन चुकी है. और निर्मल हृदय बालक की तरह उन्हें अपनी इस मां की गोद में सुकून मिलने लगा है.

सुशील चंद्र सोच रहे थे कि मां से बढ़ कर सुंदर इस दुनिया में कोई हो नहीं सकता. अब उन्हें समझ आया कि ट्रेन में पहली बार ही देखने पर भी प्रमिला की जिस सुंदरता ने उन को आकर्षित किया था, वह एक मां के हृदय की सुंदरता थी. मां के हृदय की यह सुंदरता ही प्रमिला के रोएंरोएं से प्रगट हो रही थी.लज्जा नारी का आभूषण होता है. मगर मातृत्व तो वह हीरा है, जिस से नारी का एकएक अंग दमक उठता है. सुंदर नारी और भी सुंदर लगने लगती है, जब उस के हृदय में ममता का संचार होता है. जब उस की भावनाओं में करुणा का श्रृंगार होता है. विचारों में पवित्रता का संस्कार होता है.

फिर उन्होंने मृत्युशैय्या पर लेटे 85 वर्षीय वृद्ध शिशु की डायरी से कविताएं पढ़ी. खूब बातें कीं और जब विदा हुए तो प्रमिला से बोले, ‘आज मैं तुम्हारी भावनाओं से अभिभूत हूं. तुम इस घर में बहू बन कर आई. बेटी बन कर रही. और मां बन कर तुम ने इस पूरे घर को मंदिर बना दिया.’और सुनो, आज प्ररेणा बन कर इस सोए हुए कवि के लेखक की चेतना को भी तुम ने जगा दिया है. कुछ दिनों से मेरे आस्था और विश्वास की जमीन डांवांडोल हो रही थी. जीवन की ऊष्मा कम होती जा रही थी. आज तुम्हारी भावनाओं से जुड़ कर मेरे हृदय में फिर से स्फूर्ति का संचार हो रहा है.’

प्रमिला बोली, ‘मैं तो स्वयं आप से मिल कर अपनी चेतना में स्फूर्ति का अनुभव कर रही हूं.’सुशील चंद्र बोले, ‘अगर सचमुच ऐसा है तो और भी अच्छा है. मेरा मन तुम्हारे साथ एक ऐसा रिश्ता जोड़ने का हो रहा है, जो बहन, बेटी, मां और पत्नी के रिश्ते से भी एक कदम आगे बढ़ कर है. मैं तुम्हें अपना मित्र बनाना चाहता हूं. मुझे पूरा भरोसा है कि तुम स्त्रीपुरुष की पवित्र मित्रता को भी एक नया आयाम दे सकोगी.’

प्रमिला बोली, ‘सर, मित्रता तो बराबरी वालों में होती है. मैं न तो उम्र में आप के बराबर हूं, न ही पद और कद में आप के बराबर हूं.’’सुशील चंद्र बोले, “उम्र में भले ही तुम मुझ से छोटी हो, परंतु विचार, भावनाओं और संवेदनशीलता में मुझ से बड़ी हो. इसी से सोचता हूं कि तुम्हारी भावनाओं को अपनी भावनाओं के साथ जोड़ कर मैं अनुभव के उस आकाश तक पहुंच सकूंगा, जहां से मेरे साहित्य सृजन न जाने कितने चांद और सितारे उतर आएंगे.”

प्रमिला कुछ नहीं बोली, पर उस की आंखों ने बहुतकुछ बोल दिया, जो सुशील चंद्र ने आंखों ही आंखों में बांच लिया.सुशील चंद्र और प्रमिला की मित्रता धीरेधीरे बढ़ती गई. वे दोनों एकदूसरे के साथ ऐसे घुलमिल गए, जैसे दूध में मिश्री घुलमिल गई हो. अपने पिता ससुर के निधन के बाद तो प्रमिला को लगता सुशीलचंद्रजी… होती गई.शीघ्र ही सुशील चंद्र का ‘‘सुंदरता’’ शीर्षक नाम का नया उपन्यास प्रकाशित हुआ. उपन्यास प्रमिला को समर्पित करते हुए उन्होंने लिखा,

समर्पित अपनी अंतरंग मित प्रमिला के अध्यात्मिक सौंदर्य को,जिस ने मुझे फिर से कलम उठाने को

प्रेरित किया. सुशील चंद्र उपन्यास प्रकाशित होने के बाद ये बात भी तेजी से सार्वजनिक हो गई कि उपन्यास की नायिका के रूप में ‘‘बूढ़े बच्चे की मां के’’ जिस किरदार के अलौकिक सौंदर्य पर उपन्यास का तानाबाना बुना गया है, वह किरदार वास्तव में प्रमिला का किरदार ही है. कुछ लोग उन दोनों की अंतरंगता को ले कर कटाक्ष भी करने लगे थे. दोनों के रिश्तों पर संदेह करती हुई कुछ अफवाहें कानाफूंसी के कंधों पर सवार हो कर प्रमिला के पति विनय के कानों तक भी पहुंच गईं. मगर विनय सुलझा हुआ इनसान था. उस की दृष्टि पैनी और पारदर्शी थी.

प्रमिला ने जब अपने पति विनय का पहली बार सुशील चंद्र से परिचय कराया तो कहा, ‘ये हैं सुशील चंद्रजी… मेरे अंतरंग मित्र.’प्रमिला के पति विनय ने कहा, ‘आप की मित्रता की सुंदरता और पवित्रता को मैं महसूस कर रहा हूं. अगर यह मित्रता न होती तो उपन्यास ‘सुंदरता’ की नायिका की अलौकिक छवि को आप इतनी खूबसूरती से चित्रित नहीं कर पाते.’

प्रमिला ने आश्चर्य के साथ अपने पति की ओर देखा.विनय ने कहा, ‘हां, मैं ने यह उपन्यास पढ़ा है. इस के एकएक शब्द ने मुझे आल्हादित किया है. मुझे गर्व है कि सुशील चंद्रजी जैसे बड़े लेखक मेरी पत्नी को अपना अंतरंग मित्र मानते हैं. मित्रता आप दोनों को मुबारक हो.’फिर विनय ने सुशील चंद्रजी की ओर मुड़ कर कहा, ‘मेरे लिए तो आप बहुत बड़े लेखक और कवि हैं. और मैं सदा आप को प्रणाम ही करता रहूंगा.’

इतना कहते हुए विनय ने जब सुशील चंद्रजी के पैर छुए तो उन्होंने आशीर्वाद देते हुए विनय को अपने गले से लगा लिया.

The post सुंदरता- भाग 3 : ट्रेन में क्या घटना हुई थी appeared first on Sarita Magazine.

November 02, 2021 at 10:14AM

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